Sanskrit Shlokas With Meaning – संस्कृत भाषा को सभी भाषाओं की जननी कहा जाता है। यह दुनिया की सबसे पुराणी भाषा है और भारत में संस्कृत भाषा का प्रचलन वैदिक काल से चला आ रहा है। हमारे देश भारत में संस्कृत भाषा को देव भाषा की उपाधि दी गई है। वैदिक काल में संस्कृत भाषा में ही वार्तालाप हुआ करती थी। इसकी कारा से उस सयम बनाये गये श्लोक आज भी मानव जीवन का अहम हिस्सा है।
अगर आप हिन्दुस्तान में रहते है और आप हिन्दू धर्म को मानते हैं तो आपको संस्कृत श्लोक (Sanskrit Shlokas) का कुछ बहुत ज्ञान तो होगा ही अगर नहीं है तो हम इस लेख हमें आपको संस्कृत श्लोक का अर्थ सहित ज्ञान देने जा रहे हैं जो आपके बहुत ही काम आने वाला है। नीचे दिये गये श्लोक हमारे ऋषि-मुनियों ने संस्कृत भाषा (sanskrit slokas) में लिखे है और जिनका हमारे जीवन में अहम योगदान भी है।
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Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi | संस्कृत सुभाषितानि हिंदी भावार्थ सहित
हम इस लेख के माध्यम से कुछ हमारे ऋषी—मुनियों और महान लोगों के द्वारा लिखे गये संस्कृत श्लोकों का हिन्दी में भी बताने जा रहे हैं जिससे आप इन संस्कृत श्लोकों का अर्थ भी समझ सकेंगें। तो आइये शुरू करते हैं इस लेख को —
सर्वश्रेष्ठ संस्कृत श्लोक अर्थ – Best Sanskrit Shlokas Meaning
न योऽभ्यसुयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति ।
नात्याह किञ्चित् क्षमते विवादं सर्वत्र तादृग् लभते प्रशांसाम् ॥
अर्थात : वह व्यक्ति जो न अपने आप पर शिकायत करता है और न ही कमजोर होता है, वह हमेशा सफलता की ओर अग्रसर रहता है। ऐसा व्यक्ति कभी झगड़े में फंसा नहीं रहता। वह सभी जगहों पर सम्मानित होता है।
यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्त्यान्।
न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियंसदा तं कुरुते जनो हि ॥
अर्थात : जो व्यक्ति शैतानों जैसा वेश नहीं बनाता ,वीर होने पर भी अपनी वीरता की बड़ाई नही करता ,क्रोध् से विचलित होने पर भी कड़वा नहीं बोलता ,उससे सभी प्रेम करते हैं ।
देशाचारान् समयाञ्चातिधर्मान् बुभूषते यः स परावरज्ञः ।
स यत्र तत्राभिगतः सदैव महाजनस्याधिपत्यं करोति ॥
अर्थात : जो व्यक्ति देश के संस्कृति, संस्कार और धर्म का सम्मान करता है, वह परावरज्ञ (पराक्रमी) माना जाता है। वह हमेशा उस जगह पर सफलता प्राप्त करता है जहां वह जाता है और महाजनों (प्रतिष्ठित व्यक्तियों) के अधिपत्य को स्थापित करता है।
दम्भं मोहं मात्सर्यं पापकृत्यं राजद्धिष्टं पैशुनं पूगवैरम् ।
मत्तोन्मत्तैदुर्जनैश्चापि वादं यः प्रज्ञावान् वर्जयेत् स प्रानः ॥
अर्थात : जो व्यक्ति अहंकार, मोह, ईष्र्या, पापकर्म, राजद्रोह, चुगली लोगों से वैर -भाव, नशे से, दुष्टों से झगड़ा नहीं करता है वही बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ है ।
अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धि परदाराभिमर्शम् ।
दम्भं स्तैन्य पैशुन्यं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव ॥
अर्थात : जो व्यक्ति बिना कारण घर के बाहर नहीं रहता, बुरे लोगों की संगत से दूर रहता है, पराई स्त्री से संबध नहीं रखता, चोरी—चुगली—पाखंड और शराब का सेवन नहीं करता है वहीं मनुष्य सदा सुखी रहता है।
समैर्विवाहः कुरुते न हीनैः समैः सख्यं व्यवहारं कथां च ।
गुणैर्विशिष्टांश्च पुरो दधाति विपश्चितस्तस्य नयाः सुनीताः॥
अर्थात : क समान वर्ग के लोगों के बीच शादी की जानी चाहिए, जो अलग-अलग गुणों से सम्पन्न होते हैं। एक बुद्धिमान व्यक्ति का नय समझदार होता है, वह अपनी व्यवहार कुशलता और बातचीत में समझदार होता है। वह श्रेष्ठ नीतिवान कहलाता है ।
न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति में मतिः ।
अन्तेष्वपि हि जातानां वृतमेव विशिष्यते ॥
अर्थात : ऊँचे या नीचे कुल से किसी भी व्यक्ति की पहचान नहीं होती। व्यक्ति की पहचान उसके सदाचार से होती है, भले ही वह नीच कुल में पैदा हुआ हो।
न संरम्भेणारभते त्रिवर्गमाकारितः शंसति तत्त्वमेव ।
न मित्रार्थरोचयते विवादं नापुजितः कुप्यति चाप्यमूढः ॥
अर्थात : जो मनुष्य जल्दबाजी में धर्म, अर्थ तथा काम शुरू नहीं करता, पूछने पर हमेशा सत्य ही बोलता है या बताता है और मित्र के कहने पर झगड़े एवं विवाद से बचता है, एवं अपना अनादर होने पर भी दुःखी नहीं होता। वही मनुष्य सच्चा ज्ञानी है ।
दानं होमं दैवतं मङ्गलानि प्रायश्चित्तान् विविधान् लोकवादान् ।
एतानि यः कुरुत नैत्यकानि तस्योत्थानं देवता राधयन्ति ॥
अर्थात : जो व्यक्ति दान, यज्ञ, देवताओं की स्तुति, पूजा—पाठ, प्रायश्चित तथा अन्य सांसरिक कार्यों को अपनी शक्ति अनुसार एवं पूर्ण नियमों से पूरा करत है उस व्यक्ति की उन्नति का मार्ग स्वयं देवता करते हैं।
प्रभात कालीन संस्कृत के श्लोक – Good Morning Shlokas
यत् सुखं सेवमानोपि धर्मार्थाभ्यां न हीयते।
कामं तदुपसेवेत न मूढव्रतमाचरेत्। ॥
अर्थात : कोई भी व्यक्ति जो न्यायपूर्वक और धर्म के मार्ग पर चलकर अपनी के इच्छानुसार सुखों को उपभोग कर सकता है परन्तु वह उनमें इतना आसक़्त न हो जाए कि अधर्म के मार्ग पर चलने लगे।
न चातिगुणवत्स्वेषा नान्यन्तं निर्गुणेषु च।
नेषा गुणान् कामयते नैर्गुण्यात्रानुरज़्यते।
उन्मत्ता गौरिवान्धा श्री क्वचिदेवावतिष्ठते॥
अर्थात : लक्ष्मी न तो प्रचंड ज्ञानियों के पास रूकती है, न ही नितांत मूर्खो के पास । अर्थात लक्ष्मी को न तो विद्वानों से लगाव है न ही मूर्खो से। जिस प्रकार एक बिगड़ैल बैल को हर कोई नहीं वश में कर पाता है उसी प्रकार लक्ष्मी भी किसी—किसी के पास ही ठहरती है।
आलस्यं मदमोहौ चापलं गोष्टिरेव च।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा त्यागित्वमेव च।
एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः ॥
अर्थात : विद्यार्थियों को हमेशा सात अवगुणों से दूर रहना चाहिए। ये अवगुण हैं – आलस, नशा, चंचलता, गपशप, जल्दबाजी, लालच और अहंकार ।
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेत् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्॥
अर्थात : अगर आपको सुख चाहिए तो आपसे विद्या दूर रहेगी और विद्या चाहने वालों से सुख। अत: अगर आपको सुख चाहिए तो आपको विद्या को छोड़ देना चाहिए और विद्या चाहिए तो सुख को त्यागना चाहिए।
अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
अर्थात् : आठ गुण मनुष्य को महान व्यक्तित्व का धनी बनाते हैं वो हैं — बुद्धि, अच्छा चरित्र, आत्म-संयम, शास्त्रों का अध्ययन, वीरता, कम बोलना, क्षमा करने वाला और दान देने वाला।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
अर्थात् : कोई भी काम कड़ी मेहनत के बिना पूरा नहीं होता है। कार्य करने के लिए मेहतन करनी होती है सिर्फ कार्य के बारे में सोचने से कार्य नहीं होता है। उनके लिए आपको प्रयत्न भी करना पड़ता है। जैसे कि एक भूखे सोये हुये शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं आएगा। उसे उठकर शिकार करना ही पड़ेगा।
न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥
अर्थात् : कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा अत: आज का कार्य कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। जो ऐसा करता है वहीं बुद्धिमान इंसान कहलाता है।
नास्ति मातृसमा छाय
नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं
नास्ति मातृसमा प्रपा॥
अर्थात् : माता के समान कोई छाया नहीं, माता के समान कोई आश्रय नहीं, माता के समान कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस सम्पूर्ण विश्व में कोई भी जीवनदाता नहीं है।
आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥
अर्थात् : किसी भी कीमती रत्न से कीमती जीवन होता है जिसका बिता हुए एक क्षण भी वापस नहीं आ पाता है इसी कारण से इसे फालतू के कार्यों में खर्च नहीं करना चाहिए।
Popular Sanskrit Slokas Meaning in Hindi
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥
अर्थात् : दुर्जन व्यक्ति की मित्रता प्रारम्भ में अच्छी लगती है परन्तु वह कम समय के लिए ही होती है। सज्जन व्यक्ति की मित्रता प्रारम्भ में अच्छी नहीं लगती है परन्तु यह जीवन पर्यन्त के लिए होती है। जैसे दिन के पूर्वार्ध और परार्ध में अलग-अलग दिखने वाली छाया के जैसी दुर्जन और सज्जनों व्यक्तियों की मित्रता होती है।
यमसमो बन्धु: कृत्वा यं नावसीदति।
अर्थात् : मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु उसका आलस्य ही है, परिश्रम के जैसा कोई दूसरा मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं रह सकता है।
परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।
परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।
अर्थात् : पराया अन्न, पराया धन, पराया दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा, इन सबकी इच्छा करना मनुष्य के लिए वर्जित है।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
अर्थात : जिस धरती में हमने जन्म लिया वह मातृ भूमि और माँ स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत् ।।
अर्थात : माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है। अतः व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह् उनका हमेशा आदर और सेवा करे।
न मातु: परदैवतम्।
अर्थात : मां से बढ़कर कोई देव नहीं है।
तावत्प्रीति भवेत् लोके यावद् दानं प्रदीयते ।
वत्स: क्षीरक्षयं दृष्ट्वा परित्यजति मातरम्
अथार्त : लोगों का प्रेम तभी तक है जब तक आप उनको कुछ दे रहे हैं या उनके काम आ रहे हैं। जिस प्रकार गाय का बछड़ा मां का दूध सूख जाने के बाद उसका साथ छोड़ देता है।
सुसूक्ष्मेणापि रंध्रेण प्रविश्याभ्यंतरं रिपु:
नाशयेत् च शनै: पश्चात् प्लवं सलिलपूरवत्
अर्थात : जिस प्रकार नाव में बना एक छेद पूरी नाव को ही डूबा देता है उसी प्रकार घर के अन्दर का शत्रु धीरे—धीरे सब कुछ खत्म कर देता है।
महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्
अथार्त : महान लोगों के संपर्क से किस की उन्नति नहीं होती। जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की एक बूंद भी मोती की तरह चमकती है।
Easy Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi
निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषं भवतु मा वास्तु फटाटोपो भयंकरः।
अथार्त : प्रत्येक सांप जहरीला नहीं होता फिर भी उसकी फुफकार और उसके फन को उठता देख कर ही मनुष्य डर जाता है। अगर वह ऐसा न करें तो उसे कमजोर समझ कर लोग उसे कुचल देंगे।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात : धर्म का सार तत्व यह है कि जो कार्य आपको बुरा लगे उस कार्य को आप दूसरों के लिए भी न करें।
य ईर्षुः परवित्तेषु रुपे वीर्ये कुलान्वये ।
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ॥
अर्थात : जो व्यक्ति दूसरों की सम्पति, खुबशुरती, सुख, पराक्रम, उच्च कुल, सौभाग्य एवं सम्मान से ईर्ष्या व द्वेष रखता है वह एक खतरना बिमारी से ग्रसित है जो कभी भी ठीक नहीं हो सकता है।
अकार्यकरणाद् भीतः कार्याणान्च विवर्जनात् ।
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन माद्देन्न तत् पिबेत् ॥
अर्थात : हमें अपने कार्यों पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें समय पर पूरा करना चाहिए। हमें कामों से विवर्जित रहना चाहिए और उन्हें अवश्य पूरा करना चाहिए। इसके अलावा, हमें समय पर योग्य मंत्र का उपयोग करना चाहिए और किसी भी अन्य वस्तु को नहीं पीना चाहिए, जो हमारे शरीर और मन को नुकसान पहुंचा सकती है।
मानात् वा यदि वा लोभात् क्रोधात् वा यदि वा भयात्।
यो न्यायं अन्यथा ब्रूते स याति नरकं नरः।
अर्थात : कहा गया है कि यदि कोई लोभ से, अहंकार के कारण, क्रोध से या फिर किसी डर के कारण गलत फैसला ले लेता है वह व्यक्ति नरक के समान जीवन जीता है।
दारिद्रय रोग दुःखानि बंधन व्यसनानि च।
आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
अर्थात : दरिद्रता, रोग, दुख, बंधन और विपदाएं ये सभी अपराध रूपी वृक्ष के फल के समान है। हैं। इन फलों का उपभोग मनुष्य को कभी न कभी करना ही पढ़ता है।
FAQ’s
संस्कृत में श्लोक का मतलब क्या है?
श्लोक एक प्रभावी एवं संक्षेप वाक्य होता है जो संस्कृत शास्त्रीय साहित्य, धर्म और दर्शन की रचनाओं में प्रयुक्त होता है। शब्द “श्लोक” संस्कृत शब्द “श्लोकः” से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ होता है “विभिन्न विषयों के लिए एक संक्षिप्त वाक्य”।
श्लोक एक सामान्यतः चार पंक्तियों का समूह होता है, जिसमें प्रत्येक पंक्ति में समान गुरु और लघु अक्षर होते हैं और इसलिए उन्हें छंद कहा जाता है। श्लोक का प्रयोग उपदेश, नीति, समझौता और विशेषण के रूप में किया जाता है।
श्लोक के द्वारा विभिन्न विषयों का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है जैसे कि धर्म, नैतिकता, जीवन का उद्देश्य और मार्गदर्शन। यह एक प्रभावी एवं समझ में आसान तरीके से ज्ञान और विवेक का प्रदर्शन करता है।
इसलिए, श्लोक संस्कृत साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है जो धार्मिक, सामाजिक और नैतिक मानदंडों को समझने में मदद करता है।
घमंड से जुड़े संस्कृत के श्लोक क्या हैं?
“अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
तानहंकृत्य वशे यन्ति ते विद्वांस्ते जनाः।।”
इसका अर्थ होता है – अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध ये पाँच गुण जो मनुष्य में होते हैं, उन्हें नियंत्रित करने से बुद्धिमान लोगों को जन्म लेने वाले लोगों का जन्म व्यर्थ नहीं होता।
“विनष्टे भृशमुद्यमो यः स्वयं दुःखं निराकुरुते।
स जीवति कथं पुण्यं कुतः सुखं विशेषतः।।”
इसका अर्थ होता है – वह व्यक्ति, जो अपनी बर्बादी के समय भी खुश रहता है, उसे कैसे धर्म, पुण्य और सुख प्राप्त हो सकता है?
प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक अर्थ सहित
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया॥”
इसका अर्थ होता है – उठो, जागो और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो। क्योंकि समय के समुद्र की तरह तेज धाराएं तुम्हारी तरफ आ रही हैं जिनसे बचना मुश्किल है।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”
इसका अर्थ होता है – तुम्हारा कर्तव्य कर्म करना है, परन्तु फल की चिंता मत करो। क्योंकि कर्मफल नहीं तुम्हारा हक है और तुम केवल कर्म के लिए ही जवाबदेह हो।